Saturday 14 May 2016

बार-बार निर्भया!



केरल से बलात्कार की एक और खबर सुनकर कई सवाल उठने लगे हैं मन में. आखिर ऐसा करनें वालों के मन में किसी औरत के प्रति क्या जज़्बात होते होंगे? जज़्बात होते होंगे भी कि नहीं? वो बाकी मर्द, जिन्हें औरतों को देखकर बलात्कार करने का मन नहीं करता, वो लोग इन लोगों से अलग कैसे सोच लेते हैं? वो लोग भी इसी समाज में रहते हैं. फिर लड़कियों के कपड़ों के साइज से उन्हें कोई असर क्यों नहीं पड़ता? क्या कोई लोहे-लक्कड़ की ढाल लगा रखी है इनलोगों ने जो इनकी नीयत औरतों पर खराब नहीं होती? नहीं न? नहीं, असल में किसी के मन में जैसे विचार चलते हैं वैसे ही काम वो अपनी जिंदगी में करेगा. मेरे खयाल में ऐसा काम सिर्फ़ वही कर सकते हैं. जिनका दिमाग किसी कारण पूरी तरह विकसित नहीं हुआ. वैसे भारत एक ऐसा देश है जहाँ एक राजनीतिक नेता मीडिया में बड़ी आसानी से बयान दे जाता है कि महिलाएँ अगर लक्ष्मणरेखा पार करेंगी तो रावण आकर हरण करके ले जाएगा. कपड़ों और फिल्मों को परंपराओं और मूल्यों में आनेवाली गिरावट के लिए बड़ी आसानी से जिम्मेवार मान लिया जाता है. क्या हमने फिल्मों से सीखा है कि किसी लड़की का दुष्कर्म करो और उसकी अंतड़ियों को बाहर निकाल दो? ऐसी जघन्यता हम कहाँ से सीखे जा रहें हैं? यह कौन स्वीकार करेगा कि जब ये ‘मुन्नी’ और ‘शीला’ का वजूद नहीं था. जब बिकनी या जींस भी नहीं थी, तब भी द्रौपदी का चीरहरण हुआ था. हुआ था न? और इसके लिए जो जिम्मेदार थे वो क्या हालात थे? कौरवों की परवरिश और धृतराष्ट्र का उनपर अंकुश न होना? या पांडवों की लाचारी और द्रौपदी के वस्त्र? फैसला आप कर लीजिए. कालखंड मायनें नहीं रखता, दुःशासन कल भी था, बदकिस्मती से आज भी है. और सबसे ज्यादा बदकिस्मती की बात… कि वो हर कालखंड में अपने कुकर्म को किसी न किसी बहाने सही ठहराने का बहाना ढ़ूंढ़ लेता है. 


व्यवस्था की बात, क्या करे? मत ही करिए. याद आता है, 2014 में जब गुजरात में आनंदीबेन पटेल की सरकार बनी थी, तब सरकार की तरफ से जगह-जगह महिला सशक्तिकरण के नाम पर एक पोस्टर लगाया गया था, फिर वही नसीहत थी महिलाओं को. कि ढ़ंग के कपड़े पहनकर घर से निकले. एक शिकायत है, इनलोगों से. ये लोग फिल्मों पर अश्लीलता का आरोप लगाते हैं, पर क्या कभी उसे रोकने की कोई पहल की है? मुन्नी-शीला के खिलाफ़ समाज के कितने ठेकेदार निकल कर आए? हमारे समाज में औरतें उनसे ज्यादा शालीनता से रहती है. बशर्ते कि कोई व्यक्ति अपने मन में स्कैनर लगाकर अंदर तक न झाँक ले. ऐसे हैं हालात! और फिर भी अगर लड़कियों और महिलाओं पर ही पाबंदी लगेगी तो कहाँ से रूकेगा ये सब? अगर रेप के आरोपी को सज़ा के बदले मशीन मिलेगी तो क्यों नहीं बढ़ेगी उनकी हिम्मत? अपराध करते वक्त आपने नहीं सोचा कि आप नाबालिग हैं तो थोड़ा कम जघन्य अपराध करें, तो सज़ा के समय इसपर विचार क्यों? वो भी तब जब अपराधी अब बालिग हो चुका हो! 


बात सीधी है! परम्पराओं के माध्यम से बदलाव में तो बहुत वक्त लगेगा. पर व्यवस्था के माध्यम से ऐसा अपराध करनेवालों के मन में कुछ भय पैदा किया जा सकता है. बशर्ते कि व्यवस्था को लागू करनेवालों में वो इच्छाशक्ति भी हो. वरना तो हमें आदत है ही, हर सुबह, बार-बार, लगातार, एक नई निर्भया से मिलने की.

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