सब ओर पानी, फिर भी ऐसे हालात
गर्मी का मौसम अपने चरम की तरफ़ बढ़ रहा है. इस बार शायद वक्त से पहले ही गर्मी काफ़ी बढ़ चुकी है. सुबह दस बजे के बाद घर से निकलना दूभर हो गया है. अभी से कई जगह लू चलने और लू से होनेवाली मौत की खबर आने लगी है. यह तो मई का पहला हफ़्ता है. तय है कि अभी और मुश्किल दिन आनेवाले है. गर्मी अभी और सतानेवाली है.
गर्मी बढ़ने के साथ ही एक बार फिर से वही समस्या सामने मुँह बाए खड़े है. जल संकट. इस बार हालात पहले से गंभीर है. महाराष्ट्र, विदर्भ और कर्नाटक में सूखे का भयंकर प्रकोप है. शायद और भी कई जगहों पर है. हमारा शहर यूपी-बिहार सीमा पर बसा है. अभी एक दोस्त गए थे, उस तरफ. कह रहे थे कि अबकी बार गंगा नदी के बीच में रेंत के टीले नजर आ रहे हैं. पानी बहुत कम हो गया है. यह आश्चर्य की बात है, क्योंकि यह पहली बार हुआ है. मतलब इसबार स्थिति पहले से ज्यादा गंभीर है. सबसे ज्यादा मुश्किल पीने के पानी को लेकर है. सरकार कई तरह के उपाय कर रही है. हर बार की तरह टैंकरों से पानी पहुँचाया जा रहा है. साथ ही इस बार अभाव वाले इलाकों में ट्रेन से भी पानी पहुँचाने का काम किया जा रहा है जो जरूरी भी है. पर क्या यह काफ़ी है?
सच कहा जाए तो हमारे देश में यह परम्परा है कि पहले किसी भी मर्ज़ को बढ़ने दिया जाता है. और जब वह बढ़ते-बढ़ते विकराल रूप धारण कर लेता हाइ ताब उसके ईलाज के बारे में सोचने के लिए लोग हाथ-पैर मारते हैं. इसमें भी हमारी कोशिश ईमानदार नहीं होती. जल संकट हो तो आपसी छींटाकशी और आरोप-प्रत्यारोप शुरु हो जाते हैं. और आम लोग यह भूल जाते हैं कि इस समस्या के लिए जिम्मेवार खुद हमलोग ही हैं. आखिर हर समस्या का समाधान हम सरकारी तंत्र से क्यों चाहते हैं? जैसे गाड़ी हम तेज चलाते हैं और दुर्घटना हो जाए तो सड़क जामकर मुआवजा माँग लेते हैं, ठीक उसी तरह पानी भी हम ही बहाते हैं, बेवजह जाया करते हैं. पर कम पड़े तो शिकायत? सरकार इस मामले में कुछ क्यों नहीं करती. कितना अच्छा है. हम समस्या पैदा करें और फिर सरकार से उसका समाधान माँगे. क्योंकि हम खुद से कुछ करना पसंद नहीं करते. बस दूसरों पर काम टालते हैं. कभी सोचा है कि हर रोज निजी पंपिंग सेट चलाकर उससे अपनी टंकी को ओवरफ्लो करनेवाले लोग कितना पानी बर्बाद कर देते हैं? या लीकेज से? अकेले इन दो वजहों से हर साल लाखों लीटर पानी बर्बाद हो जाता है. अपनी गाड़ी धोने के लिए पाइप से बेहिसाब पानी बहाकर ‘बड़प्पन’ दिखानेवाले तो अलग हैं अभी. ऐसे लोगों को जाकर कहें भी तो क्या कहें? उलटा आपको ही सवाल बनाकर भेज देंगे कि मेरा पानी बह रहा है तो तेरा क्या जाता है. ऐसे लोगों को चलते लातूर अब बिहार से ज्यादा दूर नहीं लगता. पर क्या स्थिति इतनी गंभीर है? यह दिखने में तो लगती है. पर अगर मैं ना कहूँ, तो? यकीन नहीं आता न?
एक पते की बात बताऊँ आपको. हमारे देश में जितनी जनसंख्या है, उसके मुकाबले में धन-संपदा और जल-संपदा भी कम नहीं है. पर समस्या यह है कि इन दोनों का वितरण असमान है. जैसे देश की ज्यादातर धन-संपदा कुछ मुट्ठी भर लोगों के हक में है, वैसे ही देश का ज्यादातर पानी भी अमीर लोगों के लिए ही सुरक्षित है. और इसपर कोई भी सवाल नहीं उठा रहा. जरा नजर घुमाइए. देखिए हमारे देश में एक-से-एक आयोजन हो रहें है. भव्य आयोजन. इसमें पानी की खपत नहीं होती क्या? नेताओं के दौरे पर, रैलियों पर, क्रिकेट के तमाशे पर बेहिसाब पानी बहा दिया जाता है. जो कोल्ड ड्रिंक महँगे होटलों में बिकते हैं, क्या कभी ये भी सुना है कि पानी के कमी के चलते कोल्ड ड्रिंक की किसी फैक्टरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, बंद करना पड़ा हो? हम हमेशा जल-संरक्षण का रोना रोते रहते हैं. पर जितना जल हमारे पास है उसका सही इस्तेमाल नहीं करते. वैसे इसमें खुद हमारी भी तो गलती है न? ये हम ही हैं, जो गर्मी आते ही इन चीजों की खपत इतनी बढ़ा देते हैं कि यह सब कभी रूकने का नाम ही नहीं लेता. ये हम ही हैं जो बेकार बहते पानी को देखकर भी यह सोचकर चुप रह जाते हैं कि दूसरे के घर का पानी बह रहा है. मेरा क्या जाता है?
बदलाव या बेहतरी के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत होती है. हमें पानी बचाने और भूमिगत जलस्तर को बढ़ाने के बारे में जरूर सोचना चाहिए. पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों पर हर किसी का बराबर का हक़ है. पानी के रूप में जो वरदान हमें इस कुदरत ने दिया है, उसपर सभी का एक बराबर हक है. और अगर झूठी शान और अकर्मण्यता के चलते अगर इसे लागू नहीं किया जा सका, तो चाहे कितना भी जल-संरक्षण कर लें, पानी हमारे लिए हमेशा कम ही पड़ेगा.
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